कोरोना वायरस के साथ साथ अपने भारत देश में और भी अलग अलग तरह के वायरस निकल कर सामने आ रहे हैं जिनकी तरफ लोगों का ध्यान तो आकर्षित हो रहा है, लेकिन धीरे-धीरे।
भूख का वायरस सबसे खतरनाक और भयावह है, जिसकी चपेट में आकर लोग धीमी-धीमी मौत मर रहे हैं और हैरत की बात है कि किसी को पता भी नही चल रहा। कोरोना के केस में तो फिर भी लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कुछ काम करने में सक्षम होती है लेकिन भूख की बात आये तो शरीर की सारी क्षमताएं हवा हो जाती हैं।
अब क्योंकि कोरोना तो वैश्विक महामारी है, इससे निपटने के लिए हमारे पास धनराशि है, अगर नही है तो इंतजाम हो जाएगा। लेकिन जिनके घरों में रात की रोटी का जुगाड़ तभी होता है, जब दिन में की हुई मजदूरी के पैसे मिलते हैं, उनका क्या? ये दर्द केवल वही व्यक्ति समझ सकता है जिसने कम से कम एक दिन बगैर निवाले के गुजारा हो।
ये समझना उनके बस की बात नहीं, जिन्हें मांगने से पहले ही भोजन परोस दिया जाता हो। सोशल मीडिया पर एक साथी द्वारा भेजे गए संदेश को देख कर आंखों से आंसुओं की बाढ़ थमने का नाम नही ले रही थी। लॉक डाउन के वक़्त एक नौजवान व्यक्ति एक बुजुर्ग को खाना देने के लिए पहुंचा।
जैसे ही उसने खाना देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, उस बुजुर्ग व्यक्ति ने पहले अपनी चप्पलें उतारी और युवक के पैर छूने के लिए आगे बढ़ा। युवक कुछ समझ नही पा रहा था, लेकिन चंद ही लम्हों में, इस बेबसी को समझते ही , उसका दिल तार तार हो गया। बूढ़े व्यक्ति के लिये वो नौजवान किसी भगवान से कम नही था।
बिहार के भागल पुर में दाने दाने को तरसती बच्चियों की माँ ने रोटी की लड़ाई में कुत्ते को भी पीछे छोड़ दिया। कुत्ते के लिए फेंकी गई रोटी को दो महिलाओं ने, कुत्ते को भगाकर , रोटी को अपने कब्जे में लिया। ऐसे लोगों में से ज्यादातर वही लोग हैं जो या तो हमारे घरों में, खेतों में, फैक्टरियों में, दुकानों पर, घर व सड़क बनाते, सीवरों में, गलियों या नालियों को साफ करने का काम करते नज़र आते हैं।
ये वही हैं, जिनके हमारे घरों के काम निपुणता से निपटाने पर, हम लोग अपने ऑफिस में अपने काम की निपुणता का परिचय दे पाते हैं और वाहवाही लूटते हैं। ये वही हैं, जो मिट्टी के साथ मिट्टी होकर पूरे देश को खाने के लिए समय पर अन्न देते हैं। ये वही हैं जो हर रोज सड़को और सीवरों को साफ करते है ताकि हमें हर समय मुँह पर रूमाल ना रखना पड़े और हम भयंकर कीटाणुओं से भी बचे रहें।
ये वही लोग हैं , जिनके होने से ही हमें, हम होने का अहसास हो पाता हैं और यही वह लोग हैं जिन्हें लॉक डाउन के समय सबसे ज्यादा भूख प्यास से तड़पते हुए अपने बीवी बच्चों के साथ, भारी हुए दिल से, अपने घर का रास्ता ढूंढते हुए, बसों के इंतजार में, नंगे पैर सड़कों पर कई किलोमीटर तक पैदल चलते हुए पाया गया।
ऐसा नहीं है कि सरकार ने इस ओर अपना रुझान नहीं किया। लोक डाउन होने की खबर मिलने पर, जब हम सभी अपने-अपने घरों में राशन जमा करने की होड़ में एक-दूसरे को पीछे पछाड़ रहे थे। उन दो-तीन दिनों के बाद जब मीडिया में भूखे मरते लोगों की खबर, उन्हीं भूखे लोगों की जुबानी सुनाई दी। तब हम सभी की सोई हुई आत्मा इन दुखियारे लोगों की मदद करने के लिए तड़पने लगी। पर अब क्या करें, लॉक डाउन तो हो चुका था। एक दूसरे से दूर रहने के नियमों का पालन करने के साथ साथ, घर से बाहर भी नही निकलना था।
शुक्र है हमारी आत्माओं को शांत करने के लिए कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं और प्रशासनिक संवेदनशील अधिकारियों ने वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए स्वयं इन लोगों की मदद करने का बीड़ा उठाया। लेकिन देश के किस किस कोने में इन लोगों की तादाद कितनी है, इस बात का अंदाजा कैसे लगाया जाए। हालांकि मैंने अपनी छोटी कक्षा में आपदा प्रबंधन का नाम भी सुना था।
सरकार के आदेशानुसार निचले तबके के लोगों के लिए गांव और कस्बों में राशन भी भेजा गया। लेकिन कई स्थानों पर जब तक वंचितों तक खबर पहुंची, तब तक राशन खत्म हो चुका था। समाज में इस तरह के समाचार है की राशन उन लोगों तक पहुंच गया जिनके पास पहले से ही राशन काफी मात्रा में मौजूद था।
यह भी अजब गजब विडंबना है एक तो वंचितों की खबर नहीं, अगर खबर लग भी जाए तो उन तक राशन नहीं, वजह चाहे जो भी रही हो। अब अपनी विडंबना यह है कि घर पर खाली बैठकर केवल वंचितों की चिंता करके अपने बाल ही कम कर सकते हैं, पर उपाय नहीं।
कोरोना और भूख के अलावा, घर पर खाली ना बैठ पाने का वायरस, अपना चिड़चिड़ापन घरवालों पर उतारने का वायरस और ना जाने ऐसे कितने ही वायरस लॉक डाउन के बाद जिंदगी में आ चुके हैं।
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